mahabharat war(महाभारत युद्ध)
शांति दूत श्रीकृष्ण, युद्ध की शुरुवात तथा श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को उपदेश, महाभारत युद्ध
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए। पहले भगवान श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधन के पास दूत बनकर गये। उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी राजा दुर्योधन से कहा-
श्रीकृष्ण शांति दूत | जब दुर्योधन ने शांति दूत बनकर आये भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने का प्रयास किया
राजन्! तुम युधिष्ठिर को आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच ही गाँव अर्पित कर दो; नहीं तो उनके साथ युद्ध करो।'
श्रीकृष्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने कहा- 'मैं उन्हें सुई की नोक के बराबर भूमि भी नहीं दूँगा; हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा।'
ऐसा कहकर वह भगवान श्रीकृष्ण को बंदी बनाने के लिये उद्यत हो गया। उस समय राजसभा में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम दुर्धर्ष विश्वरूप का दर्शन कराकर दुर्योधन को भयभीत कर दिया। फिर विदुर ने अपने घर ले जाकर भगवान का पूजन और सत्कार किया।
तदनन्तर वे युधिष्ठिर के पास लौट गये और बोले-'महाराज! आप दुर्योधन के साथ युद्ध कीजिये'
युधिष्ठिर और दुर्योधन की सेनाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में जा डटीं। अपने विपक्ष में पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण आदि गुरुजनों को देखकर अर्जुन युद्ध से विरत हो गये, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा-"पार्थ! भीष्म आदि गुरुजन शोक के योग्य नहीं हैं। मनुष्य का शरीर विनाशशील है, किंतु आत्मा का कभी नाश नहीं होता। यह आत्मा ही परब्रह्म है।
'मैं ब्रह्म हूँ'- इस प्रकार तुम उस आत्मा को समझो। कार्य की सिद्धि और असिद्धि में समानभाव से रहकर कर्मयोग का आश्रय ले क्षात्रधर्म का पालन करो।"
श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर अर्जुन रथारूढ़ हो युद्ध में प्रवृत्त हुए। उन्होंने शंखध्वनि की। दुर्योधन की सेना में सबसे पहले पितामह भीष्म सेनापति हुए। पाण्डवों के सेनापति शिखण्डी थे। इन दोनों में भारी युद्ध छिड़ गया। भीष्मसहित कौरव पक्ष के योद्धा उस युद्ध में पाण्डव-पक्ष के सैनिकों पर प्रहार करने लगे और शिखण्डी आदि पाण्डव- पक्ष के वीर कौरव-सैनिकों को अपने बाणों का निशाना बनाने लगे।
कौरव और पाण्डव-सेना का वह युद्ध, देवासुर-संग्राम के समान जान पड़ता था। आकाश में खड़े होकर देखने वाले देवताओं को वह युद्ध बड़ा आनन्ददायक प्रतीत हो रहा था। भीष्म ने दस दिनों तक युद्ध करके पाण्डवों की अधिकांश सेना को अपने बाणों से मार गिराया।
भीष्म वध | BHEESHMA VADH |क्यों श्रीकृष्ण भीष्म पर क्रोधित हुए और अर्जुन ने उनका वध किया
भीष्म द्वारा बड़े पैमाने पर पांडवों की सेना को मार देने से घबराए पांडव पक्ष में भय फैल जाता है, तब श्रीकृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं। भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं। इसके बाद भीष्म पांचाल तथा मत्स्य सेना का भयंकर संहार कर देते हैं। फिर पांडव पक्ष युद्ध क्षेत्र में भीष्म के सामने शिखंडी को युद्ध करने के लिए लगा देते हैं। युद्ध क्षेत्र में शिखंडी को अपने सामने डटा देखकर भीष्म अपने अस्त्र शस्त्र त्याग देते हैं और निहत्थे खड़े हो जाते हैं। क्योंकि भीष्म की प्रतिज्ञा थी कि वे किसी स्त्री से युद्ध नहीं लड़ेंगे।
भीष्म ने कृष्ण पर युद्ध धर्म के विरुद्ध आचरण करने का आरोप लगाते हुए एक स्त्री पर वार करने से मना कर अपना धनुष नीचे रख दिया। कृष्ण ने भीष्म को उत्तर दिया कि आपने हमेशा ही अपने द्वारा निर्धारित मानदंडों पर निर्णय लिया है और धर्म की अवहेलना की है। आज भी उन्हीं मानदंडों पर वे शिखंडी को स्त्री बता रहे हैं जिसका पालन उसके पिता ने पुरुष की तरह किया है और उसके पास यक्ष का दिया हुआ पुरुष-लिंग भी है।
भीष्म के सामने अपने रथ पर खड़े शिखंडी ने लगातार भीष्म पर तीरों से वार किया लेकिन भीष्म के कवच से तीर टकराकर गिर जाते थे। शिखंडी के तीरों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे भीष्म की छाती को छेद पाते। तब अर्जुन भी पीछे से भीष्म पर वार करने लगे। अर्जुन और शिखंडी के तीरों के रंग एक थे। इसीलिए और नजर कमजोर होने के कारण भीष्म अर्जुन के तीरों को पहचान नहीं पाए। इस तरह शिखंडी की आड़ में अर्जुन के तीरों से भीष्म का शरीर छलनी हो जाता है।
कहते हैं कि शिखंडी ने अपने रथ पर खड़े होकर लगातार दो दिनों तक भीष्म पर तीरों से वार किया था। लेकिन उसके तीर भीष्म के कवच से टकराकर गिर जाते थे। उसको भेद नहीं पाते थे। इसीलिए भीष्म अपनी प्रतिज्ञा के चलते उसके तीरों को ना तो काटते और ना ही शिखंडी पर वार करते थे। फिर अर्जुन शिखंडी के पीछे से भीष्म पर वार करते हैं। अर्जुन और शिखंडी के तीरों के रंग एक थे और दूसरा कारण यह की भीष्म अपनी नजरें कमजोर होने के कारण पीछे से अर्जुन तीर चला रहा है यह पहचान नहीं पाए। ऐसे में शिखंडी के तीर तो कवच से टकराकर गिर जाते थे लेकिन अर्जुन के तीर भीष्म के शरीर को छेद देते थे। इस तरह अर्जुन भीष्म के शरीर को छलनी कर देते हैं लेकिन अपने पिता शांतनु द्वारा इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त भीष्म फिर भी जिंदा थे। अर्जुन के तीरों से भीष्म का धनुष भी टूट जाता है। तब ऐसे में भीष्म अपने शरीर में धंसे तीरों की परवाह न करते हुए अपने हाथ में तलवार लेकर रथ से उतरने लगते हैं। उसी समय उनका संतुलन बिगड़ता है और वे गिर पड़ते हैं और वे तीरों की शैया पर लेट जाते हैं।
भीष्म के शरशय्या पर लेटने की खबर फैलने पर कौरवों की सेना में हाहाकार मच जाता है। दोनों दलों के सैनिक और सेनापति युद्ध करना छोड़कर भीष्म के पास एकत्र हो जाते हैं। दोनों दलों के राजाओं से भीष्म कहते हैं, राजन्यगण। मेरा सिर नीचे लटक रहा है। मुझे उपयुक्त तकिया चाहिए। उनके एक आदेश पर तमाम राजा और योद्धा मूल्यवान और तरह-तरह के तकिए ले आते हैं।
किंतु भीष्म उनमें से एक को भी न लेकर मुस्कुराकर कहते हैं कि ये तकिए इस वीर शय्या के काम में आने योग्य नहीं हैं राजन। फिर वे अर्जुन की ओर देखकर कहते हैं, 'बेटा, तुम तो क्षत्रिय धर्म के विद्वान हो। क्या तुम मुझे उपयुक्त तकिया दे सकते हो?' कहते हैं कि आज्ञा पाते ही अर्जुन ने आंखों में आंसू लिए उनको अभिवादन कर भीष्म को बड़ी तेजी से ऐसे 3 बाण मारे, जो उनके ललाट को छेदते हुए पृथ्वी में जा लगे। बस, इस तरह सिर को सिरहाना मिल जाता है। इन बाणों का आधार मिल जाने से सिर के लटकते रहने की पीड़ा जाती रही।
महाभारत द्रोणाचार्य वध |
DRONACHARY VADH |
धृष्टद्युम्न प्रतिज्ञा |
अश्वत्थामा हतो नरो वा कुञ्जरो वा
कर्ण वध | कर्ण और अर्जुन का भयंकर युद्ध | Karn Vs Arjun Yudh Mahabharat Ramanand Sagar
अर्जुन द्वारा कर्ण वध
द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद दुर्योधन पुन: शोक से आतुर हो उठा। अब द्रोणाचार्य के बाद कर्ण उसकी सेना का कर्णधार हुआ। पांडव सेना का आधिपत्य अर्जुन को मिला। कर्ण और अर्जुन में भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्रों की मार-काट से युक्त महाभयानक युद्ध हुआ, जो देवासुर-संग्राम को भी मात करने वाला था। कर्ण और अर्जुन के संग्राम में कर्ण ने अपने बाणों से शत्रु-पक्ष के बहुत-से वीरों का संहार कर डाला। सत्रहवें दिन से पहले तक, कर्ण का युद्ध अर्जुन के अतिरिक्त सभी पांडवों से हुआ। उसने महाबली भीम सहित पाण्डवों को एक-पर-एक रण में परास्त किया, पर माता कुंती को दिए वचनानुसार उसने किसी भी पाण्डव की हत्या नहीं की।
सत्रहवें दिन के युद्ध में अन्तत: वह घड़ी आ ही गई, जब कर्ण और अर्जुन आमने-सामने आ गए। इस शानदार संग्राम में दोनों ही बराबर थे। कर्ण को उसके गुरु परशुराम द्वारा विजय नामक धनुष भेंट स्वरूप दिया गया था, जिसका प्रतिरूप स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था। दुर्योधन के निवेदन पर पाण्डवों के मामा शल्य कर्ण के सारथि बनने के लिए तैयार हुए। क्योंकि अर्जुन के सारथी स्वयं श्रीकृष्ण थे और कर्ण किसी भी मामले में अर्जुन से कम ना हो इसके लिए शल्य से सारथी बनने का निवेदन किया गया। महाराज शल्य में वे सभी गुण विद्यमान थे, जो एक योग्य सारथी में होने चाहिए। अर्जुन तथा कर्ण के मध्य हो रहे युद्ध की यह भी विशेषता थी कि जब अर्जुन के बाण कर्ण के रथ पर लगते तो उसका रथ कई गज पीछे खिसक जाता, किन्तु जब कर्ण के बाण अर्जुन के रथ पर लगते तो उसका रथ केवल कुछ ही बालिश्त[1] दूर खिसकता। इस पर श्रीकृष्ण ने कर्ण की प्रशंसा की। चकित होकर अर्जुन ने कर्ण की इस प्रशंसा का कारण पूछा, क्योंकि उसके बाण रथ को पीछे खिसकाने में अधिक प्रभावशाली थे। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि- "कर्ण के रथ पर केवल कर्ण और शल्य का भार है, किन्तु अर्जुन तुम्हारे रथ पर तो स्वयं तुम, मैं और वीर हनुमान भी विराजमान हैं, और तब भी कर्ण ने उनके रथ को कुछ बालिश्त पीछे खिसका दिया।"
युद्ध में कर्ण ने कई बार अर्जुन के धनुष की प्रत्यंचा काट दी, किन्तु हर बार अर्जुन पलक झपकते ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा लेता। इसके लिए कर्ण अर्जुन की प्रशंसा करता है और शल्य से कहता है कि- "वह अब समझा कि क्यों अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहा जाता है।" कर्ण और अर्जुन ने दैवीय अस्त्रों को चलाने के अपने-अपने ज्ञान का पूर्ण उपयोग करते हुए बहुत लंबा और घमासान युद्ध किया। कर्ण द्वारा अर्जुन का सिर धड़ से अलग करने के लिए 'नागास्त्र' का प्रयोग किया गया, किन्तु श्रीकृष्ण द्वारा सही समय पर रथ को भूमि में थोड़ा-सा धँसा लिया गया, जिससे अर्जुन बच गया। इससे 'नागास्त्र' अर्जुन के सिर के ठीक ऊपर से उसके मुकुट को छेदता हुआ निकल गया। नागास्त्र पर उपस्थित अश्वसेना नाग ने कर्ण से निवेदन किया कि वह उस अस्त्र का दोबारा प्रयोग करे ताकि इस बार वह अर्जुन के शरीर को बेधता हुआ निकल जाए, किन्तु कर्ण ने माता कुंती को दिए वचन का पालन करते हुए उस अस्त्र के पुनः प्रयोग से इन्कार कर दिया।
यद्यपि युद्ध गतिरोधपूर्ण हो रहा था, किन्तु कर्ण तब उलझ गया, जब उसके रथ का एक पहिया धरती में धँस गया।[2] वह अपने को दैवीय अस्त्रों के प्रयोग में भी असमर्थ पाता है, जैसा की उसके गुरु परशुराम का शाप था। तब कर्ण अपने रथ के पहिए को निकालने के लिए नीचे उतरा और अर्जुन से निवेदन किया कि वह युद्ध के नियमों का पालन करते हुए कुछ देर के लिए उस पर बाण चलाना बंद कर दे।" तब श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- "कर्ण को कोई अधिकार नहीं है कि वह अब युद्ध नियमों और धर्म की बात करे, जबकि स्वयं उसने भी अभिमन्यु के वध के समय किसी भी युद्ध नियम और धर्म का पालन नहीं किया था।" उन्होंने आगे कहा कि "तब उसका धर्म कहाँ गया था, जब उसने दिव्य-जन्मा द्रौपदी को पूरी कुरु राजसभा के समक्ष वैश्या कहा था। द्युत-क्रीड़ा भवन में उसका धर्म कहाँ गया था। इसलिए अब उसे कोई अधिकार नहीं की वह किसी धर्म या युद्ध नियम की बात करे।" उन्होंने अर्जुन से कहा कि "अभी कर्ण असहाय है,[3] इसलिए वह उसका वध करे।" श्रीकृष्ण कहते हैं कि "अर्जुन यदि तुमने इस निर्णायक मोड़ पर अभी कर्ण को नहीं मारा तो संभवतः पाण्डव उसे कभी भी नहीं मार सकेंगे और यह युद्ध कभी भी नहीं जीता जा सकेगा।" तब अर्जुन ने एक दैवीय अस्त्र का उपयोग करते हुए कर्ण का सिर धड़ से अलग कर दिया। कर्ण के शरीर के भूमि पर गिरने के बाद एक ज्योति कर्ण के शरीर से निकली और सूर्य में समाहित हो गई। तदनन्तर राजा शल्य कौरव सेना के सेनापति हुए, किन्तु वे युद्ध में आधे दिन तक ही टिक सके। दोपहर होते-होते युधिष्ठिर ने उन्हें मृत्युलोक पहुँचा दिया।
जब युधिष्ठिर ने शल्य का वध किया | SHAILYA VADH | महाभारत का शल्य पर्व
दुर्योधन ने रथ पर सवार होकर महारथी अश्वत्थामा के पास गया। अश्वत्थामा युद्ध की संपूर्ण कलाओं का ज्ञाता था। उसे संपूर्ण वेदों और धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। अश्वत्थामा से बोला आप हमारे गुरु के पुत्र हैं हम सब लोगों को आप पर भरोसा है। आप ही बताइए कि हम किसे सेनापति बनावें? अश्वत्थामा ने कहा-हम लोगों में राजा शल्य ही अब ऐसे हैं जो उत्तम कुल, पराक्रम, तेज, यश व लक्ष्मी जैसे सभी गुणों से सम्पन्न हैं। द्रोणकुमार के ऐसा कहने पर सभी योद्धा राजा शल्य को घेरकर खड़े हो गए और उसकी जय-जयकार करने लगे अब आगे....
रात बीत जाने पर दुर्योधन ने आपके सब सैनिकों को आज्ञा दी- अब सब महारथी तैयार हो जाएं। राजा की आज्ञा पाकर सारी सेना कवच आदि से सुसज्जित हो गई। बाजे बजने लगे।योद्धाओं का सिंहनाद होने लगा उस समय मरने से बचे हुए सैनिक मौत की परवा न करके रणभूमि की ओर कूच करते दिखाई देने लगे। मद्रराज शल्य को सेना का नायक बनाकर महारथियों ने संपूर्ण सेना के कई विभाग किए और सबको युद्धभूमि में यथास्थान खड़ा किया। फिर सभी राजाओं ने शपथ ली की हम में से कोई अकेला होकर पाण्डवों से न लड़े, जो अकेला ही उनसे लड़ेगा अथवा जो किसी लड़ते हुए योद्धा को अकेला छोड़ देगा, उसे पांच महापातक और पांच उपपातक लगेंगे। इसलिए सब एक दूसरे की रक्षा करते हुए साथ रहकर युद्ध करें।
इस प्रकार शपथ लेकर समस्त महारथियों ने शल्य को आगे किया और बड़ी शीघ्रता साथ शत्रुओं पर चढ़ाई कर दी। इसी तरह पाण्डव भी सेना का व्यूह बनाकर युद्ध की इच्छा से कौरवों पर चढ आए। उनकी सेना क्षुब्ध हुए समुद्र की भांति गर्जना कर रही थी। पांडवों का सिंहनाद सुनकर आप के पुत्रों के मन में भय समा गया। तब मद्रराज शल्य ने उन्हें धीरज बंधाया और सर्वतोभद्र नामक व्यूह बनाकर युद्ध शुरू किया। नकुल ने कर्ण के तीन पुत्रों का वध कर दिया। राजा शल्य ने भीमसेन व युधिष्ठिर से भयंकर युद्ध किया।
महाभारत दुर्योधन वध | भीम और दुर्योधन का अंतिम युद्ध | Mahabharat Ramanand Sagar
दुर्योधन वध और महाभारत युद्ध की समाप्ति
सारी सेना युद्ध में मारी गयी थी। अन्ततोगत्वा उसका भीमसेन के साथ युद्ध हुआ। उसने पाण्डव-पक्ष के पैदल आदि बहुत-से सैनिकों का वध करके भीमसेन पर धावा किया। उस समय गदा से प्रहार करते हुए दुर्योधन के अन्य छोटे भाई भी भीमसेन के ही हाथ से मारे गये थे। महाभारत-संग्राम के उस अठारहवें दिन रात्रिकाल में महाबली अश्वत्थामा ने पाण्डवों की सोयी हुई एक अक्षौहिणी सेना को सदा के लिये सुला दिया। उसने द्रौपदी के पाँचों पुत्रों, उसके पांचालदेशीय बन्धुओं तथा धृष्टद्युम्न को भी जीवित नहीं छोड़ा। द्रौपदी पुत्रहीन होकर रोने-बिलखने लगी। तब अर्जुन ने सींक के अस्त्र से अश्वत्थामा को परास्त करके उसके मस्तक की मणि निकाल ली। (उसे मारा जाता देख द्रौपदी ने ही अनुनय-विनय करके उसके प्राण बचाये)। अश्वत्थामा इतने पर भी दुष्ट अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने के लिये उस पर अस्त्र का प्रयोग किया। वह गर्भ उसके अस्त्र से प्राय: दग्ध हो गया था; किंतु भगवान श्रीकृष्ण ने उसको पुन: जीवन-दान दिया। उत्तरा का वही गर्भस्थ शिशु आगे चलकर राजा परीक्षित् के नाम से विख्यात हुआ। कृतवर्मा, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा- ये तीन कौरवपक्षीय वीर उस संग्राम से जीवित बचे। दूसरी ओर पाँच पाण्डव, सात्यकि तथा भगवान श्रीकृष्ण-ये सात ही जीवित रह सके; दूसरे कोई नहीं बचे। उस समय सब ओर अनाथा स्त्रियों का आर्तनाद व्याप्त हो रहा था। भीमसेन आदि भाइयों के साथ जाकर युधिष्ठिर ने उन्हें सान्त्वना दी तथा रणभूमि में मारे गये सभी वीरों का दाह-संस्कार करके उनके लिये जलांजलि दे धन आदि का दान किया। तत्पश्चात कुरुक्षेत्र में शरशय्या पर आसीन शान्तनुनन्दन भीष्म के पास जाकर युधिष्ठिर ने उनसे समस्त शान्तिदायक धर्म, राजधर्म (आपद्धर्म), मोक्ष धर्म तथा दानधर्म की बातें सुनीं। फिर वे राजसिंहासन पर आसीन हुए। इसके बाद उन शत्रुमर्दन राजा ने अश्वमेध यज्ञ करके उसमें ब्राह्मणों को बहुत धन दान किया। तदनन्तर द्वारका से लौटे हुए अर्जुन के मुख से मूसलकाण्ड के कारण प्राप्त हुए शाप से पारस्परिक युद्ध द्वारा यादवों के संहार का समाचार सुनकर युधिष्ठिर ने परीक्षित् को राजासन पर बिठाया और स्वयं भाइयों के साथ महाप्रस्थान कर स्वर्गलोक को चले गये।