29 जनवरी 2019

खांडवप्रस्थ कैसे बना इन्द्रप्रस्थ || mahabharat || shree krishna leela || by ramanand sagar




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महाभारत (पुस्तक १, अध्याय २०९) में इस शहर का विवरण दिया है, कि कैसे पांडवों ने यह इन्द्रप्रस्थ शहर बनाया और बसाया। कृष्ण और अर्जुन द्वारा एक ऊंचे टीले से इंद्रप्रस्थ शहर का विहंगम दृश्य पांडवों की पांचाल राज द्रुपद की पुत्री द्रौपदी से विवाह उपरांत मित्रता के बाद वे काफ़ी शक्तिशाली हो गए थे। तब हस्तिनापुर के महाराज धृष्टराष्ट्र ने उन्हें राज्य में बुलाया। धृष्टराष्ट्र ने युधिष्ठिर को संबोधित करते हुए कहा, “ हे कुंती पुत्र! अपने भ्राताओं के संग जो मैं कहता हुं, सुनो। तुम खांडवप्रस्थ के वन को हटा कर अपने लिए एक शहर का निर्माण करो, जिससे कि तुममें और मेरे पुत्रों में कोई अंतर ना रहे। यदि तुम अपने स्थान में रहोगे, तो तुमको कोई भी क्षति नहीं पहुंचा पाएगा। पार्थ द्वारा रक्षित तुम खांडवप्रस्थ में निवास करो और आधा राज्य भोगो।“ धृतराष्ट्र के कथनानुसार, पांडवों ने हस्तिनापुर से प्रस्थान किया। आधे राज्य के आश्वासन के साथ उन्होंने खांडवप्रस्थ के वनों को हटा दिया। उसके उपरांत पांडवों ने श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की सहायता से उस शहर का सौन्दर्यीकरण किया। वह शहर एक द्वितीय स्वर्ग के समान हो गया। उसके बाद सभि महारथियों व राज्यों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में वहां श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास के सान्निध्य में एक महान यज्ञ और गृहप्रवेश अनुष्ठान का आयोजन हुआ। उसके बाद, सागर जैसी चौड़ी खाई से घिरा, स्वर्ग गगनचुम्बी चहारदीवारी से घिरा व चंद्रमा या सूखे मेघों जैसा श्वेत वह नगर नागों की राजधानी, भोगवती नगर जैसा लगने लगा। इसमें अनगिनत प्रासाद, असंख्य द्वार थे, जो प्रत्येक द्वार गरुड़ के विशाल फ़ैले पंखों की तरह खुले थे। इस शहर की रक्षा दीवार में मंदराचल पर्वत जैसे विशाल द्वार थे। इस शस्त्रों से सुसज्जित, सुरक्षित नगरी को दुश्मनों का एक बाण भी खरौंच तक नहीं सकता था। उसकी दीवारों पर तोपें और शतघ्नियां रखीं थीं, जैसे दुमुंही सांप होते हैं। बुर्जियों पर सशस्त्र सेना के सैनिक लगे थे। उन दीवारों पर वृहत लौह चक्र भी लगे थे। यहां की सडअकें चौड़ी और साफ थीं। उन पर दुर्घटना का कोई भय नहीं था। भव्य महलों, अट्टालिकाओं और प्रासादों से सुसज्जित यह नगरी इंद्र की अमरावती से मुकाबला करती थीं। इस कारण ही इसे इंद्रप्रस्थ नाम दिया गया था। इस शहर के सर्वश्रेष्ठ भाग में पांडवों का महल स्थित था। इसमें कुबेर के समान खजाना और भंडार थे। इतने वैभव से परिपूर्ण इसको देखकर दामिनी के समान आंखें चौधिया जाती थीं। “जब शहर बसा, तो वहां बड़ी संख्या में ब्राह्मण आए, जिनके पास सभी वेद-शास्त्र इत्यादि थे, व सभी भाशाओं में पारंगत थे। यहां सभी दिशाओं से बहुत से व्यापारीगण पधारे। उन्हें यहां व्यापार कर द्न संपत्ति मिलने की आशाएं थीं। बहुत से कारीगर वर्ग के लोग भी यहां आ कर बस गए। इस शहर को घेरे हुए, कई सुंदर उद्यान थे, जिनमें असंख्य प्रजातियों के फल और फूल इत्यादि लगे थे। इनमें आम्र, अमरतक, कदंब अशोक, चंपक, पुन्नग, नाग, लकुचा, पनास, सालस और तालस के वृक्ष थे। तमाल, वकुल और केतकी के महकते पेड़ थे। सुंदर और पुष्पित अमलक, जिनकी शाखाएं फलों से लदी होने के कारण झुकी रहती थीं। लोध्र और सुंदर अंकोल वृक्ष भी थे। जम्बू, पाटल, कुंजक, अतिमुक्ता, करविरस, पारिजात और ढ़ेरों अन्य प्रकार के पेड़ पौधे लगे थे। अनेकों हरे भरे कुंज यहां मयूर और कोकिल ध्वनियों से गूंजते रहते थे। कई विलासगृह थे, जो कि शीशे जैसे चमकदार थे और लताओं से ढंके थे। यहां कई कृत्रिम टीले थे और जल से ऊपर तक भरे सरोवर और झीलें, कमल तड़ाग जिनमें हंस और बत्तखें, चक्रवाक इत्यादि किल्लोल करते रहते थे। यहां कई सरोवरों में बहुत से जलीय पौधों की भी भरमार थी। यहां रहकर, शहर को भोगकर, पांडवों की खुशी दिनोंदिन बढ़ती गई थी। भीष्म पितामह और धृतराष्ट्र के अपने प्रति दर्शित नैतिक व्यवहार के परिणामस्वरूप पांडवों ने खांडवप्रस्थ को इंद्रप्रस्थ में परिवर्तित कर दिया। पाँच पाँडवों के संग, खांडवप्रस्थ कैसे बना इन्द्रप्रस्थ || mahabharat || shree krishna leela || by ramanand sagar

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